शुक्रवार, 19 मार्च 2010

स्कूल हैं या दुकान

प्राइवेट स्कूलों की मनमानी पर रोक लगती नजर नहीं आ रही तमाम स्कूल मुनाफा कमाने के लिए किताबों और यूनीफॉर्म की बिक्री मनचाही कीमत पर कर रहे हैं।
तमाम स्कूलों में नए सत्र की शुरुआत होने वाली है और ज्यादातर निजी स्कूलों में बच्चों को माता-पिता को स्कूल परिसर में खुली दुकानों से किताबें और यूनीफॉर्म खरीदने को कह दिया गया है। इन स्कूलों में चल रही दुकानों में पैरेंट्स को किताबों और यूनीफॉर्म की कीमत में कोई छूट नहीं दी जाती। जबकि स्कूल मैनेजमेंट प्रकाशकों और स्टेशनरी बनाने वाली कंपनियों से 10 से 30 फीसदी तक कमीशन वसूल करता है। अदालत स्कूलों के इस रवैये के खिलाफ कड़ी टिप्पणी कर चुकी है। कोर्ट कह चुका है कि स्कूलों का व्यावसायिक इस्तेमाल पूरी तरह गलत है। अगर निजी स्कूलों ने इस पर रोक नहीं लगाई तो वो अदालत की शरण लेंगे। नियम के मुताबिक, स्कूलों को हर बार सत्र की शुरुआत से 10-15 दिन पहले हर क्लास के लिए तय किताबों की सूची छात्रों को देनी चाहिए। इस लिस्ट पर प्रकाशक का नाम और पता भी होना चाहिए, ताकि छात्र इन्हें अपनी सुविधा के मुताबिक खरीद सकें और अगर संभव हो तो किताबों की कीमत पर छूट भी हासिल कर सकें। लेकिन होता ये है कि स्कूलों में चलने वाली दुकानों में पैरेंट्स को किताबों का बस्ता थमा कर एकमुश्त रकम वसूल ली जाती है। इस चक्कर में पैरेंट्स कई बार वैसी स्टेशनरी खरीदने को भी मजबूर हो जाते हैं, जिसकी उन्हें जरूरत ही नहीं होती। स्कूलों में यूनीफॉर्म की बिक्री के दौरान भी हालत कुछ इससे अलग नहीं होती।